प्राचीन भारत में ‘लेखन ‘ एवं ‘ वाचन ‘ दोनों का चलन था। और दोनों का अंतर् उनकी कार्यशैलियों को भी स्पष्ट करता हैं। भारतीय संस्कृति का मूल उस सजीव व्यक्ति में निहित होता है जो ना केवल संस्कृति के मनको को व्याख्यायित करता है , बल्कि सद्रभ के तौर पर भी क्रियाशील दिखता है। यह मानक तब तक अर्थहीन हैं जब तक यह बोलचाल और क्रियात्मक रूप नहीं लेते और मस्तिष्क , बोली एवं क्रिया को मिलाकर एकीकृत इकाई नहीं बनाते।
प्राचीन भारतीय साहित्य का वृहत अंश मौखिक अर्थात बोले गए शब्द की अभियक्ति स्वरुप हैं और जहाँ तक उसके सरक्षण का प्रश्न हे , वह भी मौखिक परंपरा से सबंध रखता है। सदियों तक चलती आई कठिन वाचन व्यवस्था के आधार पर एक भी अक्षर को खोए बिना वेदों को सरक्षित रखा गया था । और ब्रिटिश शासन तंत्र में जाकर लेखन साहित्य का उदभव हुआ । ब्रिटिश अदालतों ने सशक्तता प्रदान की क्योंकि अंग्रेज स्थानीय गवाहों के बयानों पर विश्वास नहीं करते थे ।
प्राचीन भारत में ‘लेखन’ एवं ‘वाचन’ दोनों पद्तियाँ थी
दोनों के बीच का बुनियादी अंतर् उनके कार्यो को भी व्यवस्थित करता था । भारत में मौखिक परंपरा आज भी प्रचलित हैं , विशेषकर लोक साहित्य है । गाथा गायको के खजाने में अनेकानेक गीतों की भरमार होती हैं जिसे वह विशाल दर्शकदीर्घाओं के सामने गाते है । तालमडले समूहों के नाटक किसी नाटय लिपि के बिना प्रदर्शित किए जाते है और ‘सनन्ता’ नामक नाटक बहुत हद तक तात्कालिक रूप से तैयार होते है । मौखिक परंपरा से संबद्ध किसी छन्दोभद विवरण के आकर और व्यपकता की कोई सिमा नहीं रहती ।
लेखन परंपरा : लेखन आमतौर पर अनुपस्थित रहता है जबकि मौखिक परम्परा में उपस्थित होता हैं और इस कारण उसकी काव्य रचना लेखन की शारीरिक रचनात्मक शक्ति पर निर्भर करती है ।
भक्ति परंपरा : भक्ति परंपरा की काव्यधारा क्यों मौखिक परंपरा से जुडी है ? इसी तथ्य से उद्घटित होता है। भक्ति काव्य ईश्वर को सम्बोधित होता है जिसकी दिव्यता का उसमे गुणगान दीखता हैं । परन्तु उनकी काव्यशैली मौखिक परंपरा से जुडी है ।
यहाँ मैं हरिहर एवं कुमारव्यास के ऐसे केवल अद्वितीय उदाहरण देता हूँ ।
हरिहर : हरिहर की पंक्ति की धरा अंतहीन है , प्रत्येक पंक्ति अपनी साथी पंक्ति के लिए उद्वेलित दिखती है और सब मिलकर ऐसी छवि निर्मित करती हैं जो सदा अपूर्ण रहती है । हरिहर के काव्य से जुडी एक आम शिकायत है कि उनकी पंक्तियाँ नीरस भाव से चलती हैं । परन्तु पंक्तियों कि यह एक्टन तकनीकी जरूरत है , यानि वह श्रोता का ध्यान अर्थ कि गहराई कि और खींचती हैं । जाहिर है , हरिहर ने यह कौशल मौखिक परंपरा से सीखा होगा।
कुमारव्यास : इनके काव्य में कुछ फर्क है । और पम्पा कि कुमारव्यास ने भी कन्नड़ में महाभारत कि कथा का पुनः कथन का प्रयास किया है । परन्तु पम्पा से इतर , उनका प्रयास मौखिक परंपरा के पुनः प्रचलन का था , या फिर कहा जाए तो यह प्रयास लेखन में मौखिक परंपरा के प्रमुख तत्यों का परिचय देने का रहा है ।
जैसे :-
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कविता तैयार करते समय उन्होंने कभी पटटी या कलम का इस्तेमाल नहीं किया ।
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शब्द लिखने के बाद उसे कभी कटा नहीं ।
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अन्य कवियों कि लेखन शैली से कभी प्रेरणा नहीं ली ।
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वह लगातार लिखते थे जिससे कलम और ताड पत्तो कि ध्वनि सदा सुनाई देती रहें ।
जाहिर है , कि कुमारव्यास प्रमाणित करना चाहते है कि वह उत्प्रेरित कवि है और उनका काव्य उत्तम श्रेणी का हैं । परन्तु उनके विवरण का ब्यौरा आश्चर्यजनक तोर पर अस्पष्ट दीखता हे । कुमारव्यास अपनी लेखन शैली को कुछ असमान्य बताते हैं । परन्तु लेखन असमान्य इसलिए हे क्योंकि उसमे लेखन से इतर वाचन गुण दीखते हैं ।
संस्कृत के अलावा , अन्य सभी भारतीय भाषाएँ जब लेखन श्रेणी तक पहुंची तो लेखन तथा मौखिक परम्पराओं से प्रेरणा प्राप्त क्र उनका साहित्य विकसित हुआ । भारत में मौखिक परम्परा साक्षरता पूर्व युग से सम्भन्ध नहीं हैं जिसे आमतौर पर सभ्यता की प्राथमिकता स्थिति मन जाता है।
भारतीय साहित्य में लेखन परम्परा आधुनिक युग में आरंभ हुई क्योंकि सभी लेखक साक्षर रहे । अब सुने जाने की बजाए कविता लिखी जा रही है । जहाँ तक कन्नड़ का प्रश्न है , इसमें मौखिक परम्परा से दो कवियों ने बहुत प्रेरणा ली हैं । वह है डी- आर बेंद्रे और पम्पा । अपने कृत्यों में हमे लोक – छंदो की गूंज सुनाई पड़ती है । और इसी कारण वाचन के समय हमारी कविताओं का महत्व बढ़ जाता है ।
हमें नहीं पता कि शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के आधुनिक समय में मौखिक परम्परा का क्या होगा । पूर्ण साक्षरता अभियान कि रफ्तार बढ़ी है और हम जानते है कि यह मुदा पूरी तरह राजनीतिक है । अतः सर्वश्रेष्ट प्रयास परम्परा के कुछ गुण को बचाकर ही किया जा सकता है । यानि हमारी कुछ धार्मिक पद्तियाँ जिसमे वाचन आवश्यक है और ऐसी कुछ शैलियाँ , वाकपटुता जिनका अभिन्न अंश होती है , काफी कारगर तरीके हो सकते हैं ।